समग्र उत्कर्ष समिती
यत्र तत्र सर्वत्र भारत
भारत : एक सार्वभौमिक चेतना और जीवंत राष्ट्र अवधारणा
यदि भारत को वास्तव में समझना है, तो उसे भारत की ही दृष्टि से देखना होगा — उस नज़र से जो इसकी आत्मा को पहचानती है, इसकी परंपराओं को समझती है और इसके मूल भाव को आत्मसात करती है। यह पुण्य भूमि आदि-ऋषियों और मुनियों की तपोभूमि रही है, जिन्होंने अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों और आध्यात्मिक साधनाओं से इस भूमि को न केवल सींचा, बल्कि इसे एक सर्वव्यापी विचारशील एवं चेतन सभ्यता के रूप में प्रतिष्ठित किया।
भारत की वैज्ञानिक सोच ने इसे वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाई, और इसका आध्यात्मिक ज्ञान सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। यही कारण है कि भारत की व्यवस्था को समझने के लिए भारत की ‘राष्ट्र’ की अवधारणा को समझना जरूरी है, जो वर्तमान समय में प्रचलित राज्य की अवधारणा से भिन्न है । भारत की दृष्टि में ‘राष्ट्र’ केवल ‘राज्य’ जैसी राजनीतिक अवधारणाओं तक सीमित नहीं है।
भारत में ‘राष्ट्र’ का अर्थ मात्र भूगोल से जुड़ा नहीं, बल्कि उस वैज्ञानिक और सांस्कृतिक चेतना से है, जिसे लोक-कल्याण और मानव-मंगल के लिए विकसित किया गया। यह एक ऐसा राष्ट्र है जिसका आधार मानवीय मूल्यों, विचारधारा और ज्ञान-परंपरा पर टिका है — जहां राष्ट्र एक सजीव विचार है, न कि केवल प्रशासनिक इकाई। वहीं ‘राज्य’ की संकल्पना एक निश्चित भूगोल, शासन प्रणाली, और सामाजिक-राजनीतिक ढांचे से जुड़ी होती है, जो समय-समय पर परिवर्तित होते रहते हैं। किंतु राष्ट्र की आत्मा — उसका चिंतन, उसकी चेतना — स्थायी रहती है और वही वैचारिक क्रांतियों की जननी बनती है।
सभ्यता से राज्य तक की यात्रा
प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक, भारत में राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं का निरंतर विकास होता रहा है। प्रत्येक युग ने समय की आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी विशिष्ट शासन पद्धति और संरचना विकसित की। सिन्धु घाटी सभ्यता जैसे प्राचीन नगर नियोजन के उदाहरणों से लेकर, वैदिक काल की सभ्यताओं में जन्मी सामाजिक संरचनाओं और यज्ञीय परंपराओं तक — भारत ने ज्ञान, प्रशासन और संस्कृति के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति की। इसके पश्चात जनपदों — जैसे कोशल, मगध, वज्जि और अवंति — ने संगठित प्रशासन और राजनीति के बीज बोए। इन जनपदों से विकसित होकर भारत महाजनपदों और साम्राज्यों (विशेषतः मौर्य साम्राज्य और उत्तर-मौर्य काल) की ओर अग्रसर हुआ, जिसने भारत को एक संगठित राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित किया।
शास्त्रीय युग, विशेषतः गुप्त साम्राज्य, को भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है, जिसमें कला, विज्ञान, गणित, साहित्य और प्रशासन का अपूर्व विकास हुआ। इसके बाद क्षेत्रीय शक्तियाँ जैसे पल्लव, चोल, पाल और प्रतिहार आदि ने संस्कृति और शासन के विविध रूपों को विकसित किया। मध्यकाल में क्षेत्रीय साम्राज्यों और इस्लामी शासकों के शासन के साथ भारत एक नवीन सांस्कृतिक और प्रशासनिक मिश्रण का केंद्र बना। इसके पश्चात औपनिवेशिक काल में भारत ने विदेशी शासन के अधीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों का अनुभव किया।
स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के बाद भारत ने संविधान निर्माण के माध्यम से एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्वयं को स्थापित किया। प्रारंभिक दशकों में योजनाबद्ध विकास, फिर 1991 के उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भारत को वैश्विक परिदृश्य में एक सशक्त संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।
भारत की राष्ट्ररूपी ज्ञान-परंपरा किसी सीमा-रेखा में बंधी हुई नहीं है; यह एक सार्वभौमिक वैचारिक अधिष्ठान है — एक ऐसी सत्ता जो आत्मा से जुड़ी है और समस्त विश्व को आलोकित करती है। जब हम कहते हैं, "यत्र तत्र सर्वत्र भारत", तो इसका आशय केवल भारत की भौगोलिक उपस्थिति नहीं होता, बल्कि यह उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता-संस्कृति, और आत्मिक ऊर्जा का विस्तार है जो विश्व के प्रत्येक कोने और प्रत्येक मानव हृदय में विद्यमान है।
इस अद्वितीय चेतना को मूर्त रूप देने के लिए हमारे ऋषियों ने मंदिरों, गुरुकुलों, साधना केंद्रों, सेवा संस्थानों एवं ज्ञान के विविध स्रोतों की स्थापना की — जिन्होंने भारत की आत्मा को जन-जन तक पहुँचाया, उसे सर्वसुलभ एवं सर्वस्वीकार्य बनाया।
राष्ट्र की आत्मा : सार्वभौमिक ज्ञान परंपरा
भारत की राष्ट्र-चेतना की जड़ें उसकी प्राचीन ऋषि-परंपरा में गहराई से समाई हुई हैं। यहां के आदि ऋषियों को ‘युगदृष्टा’ कहा गया, क्योंकि वे मात्र आध्यात्मिक साधक नहीं थे, बल्कि युगानुकूल वैज्ञानिक भी थे — जिन्होंने लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर निरंतर वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक अनुसंधान किए। उनकी साधना चमत्कारों में नहीं, अपितु तर्क और प्रयोग में निहित थी; उनकी तपस्या रहस्यवादी नहीं, यथार्थपरक थी।
इस ज्ञान-परंपरा को समाज के प्रत्येक स्तर तक पहुँचाने हेतु उन्होंने मंदिरों की स्थापना की। ये मंदिर केवल आस्था और पूजा के केंद्र न होकर, जनमानस को वैज्ञानिक, अनुशासित एवं संतुलित जीवन दृष्टि देने के साधन बने। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार मूर्तियों की स्थापना के साथ, इन मंदिरों में ऐसे पुजारियों का चयन एवं प्रशिक्षण किया गया जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त हों और समाज में जागरूकता का संचार कर सकें।
कालांतर में यही ‘मंदिर’ शिक्षा, संगीत, गणित, खगोलशास्त्र, पराविज्ञान, वास्तुशास्त्र आदि के ज्ञान-केंद्र बन गए। इस प्रकार मंदिर, भारत के बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जीवन की धुरी बन गए।
शिक्षा : समग्र मानव विकास का मार्ग
भारत की वैदिक शिक्षा प्रणाली, जो विश्व की सबसे प्राचीन और समग्र शिक्षा प्रणालियों में से एक मानी जाती है। वैदिक शिक्षा का उद्देश्य केवल सूचना देना नहीं था, बल्कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास की व्यवस्था करना था — जिसमें बौद्धिक, शारीरिक, नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति सम्मिलित थी।
वैदिक शिक्षा की विशेषताएँ:
1. गुरुकुल प्रणाली: शिक्षा आश्रमों और गुरुकुलों में दी जाती थी, जहाँ विद्यार्थी गुरु के साथ रहते हुए जीवनोपयोगी ज्ञान प्राप्त करते थे।
2. नैतिक एवं आध्यात्मिक अनुशासन: वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ आदि के अध्ययन के साथ-साथ ध्यान, संयम, सत्य, अहिंसा, और सेवा जैसे मूल्यों पर विशेष बल दिया जाता था।
3. विषय वैविध्य: केवल यज्ञ-विधान या वेद-पाठ ही नहीं, बल्कि गणित, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, औषधि, वास्तु, तर्कशास्त्र, राजनीति, संगीत आदि विषयों की भी गहन शिक्षा दी जाती थी।
4. प्रयोगात्मक दृष्टिकोण: शिक्षा केवल सैद्धांतिक नहीं थी, उसका उद्देश्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विवेक और संतुलन लाना था।
शैक्षिक विरासत के प्रतीक:
इस शिक्षा परंपरा का मूर्त उदाहरण नालंदा विश्वविद्यालय है, जहाँ दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र और चिकित्सा जैसे विषय अंतरराष्ट्रीय छात्रों को पढ़ाए जाते थे। इसी परंपरा में तक्षशिला विश्वविद्यालय, विक्रमशिला, वल्लभी, और उज्जयिनी जैसे ज्ञान केंद्र भारत को वैश्विक शिक्षा-गुरु बनाते थे।
व्यास परंपरा द्वारा महाभारत, वेदांत, पुराण आदि की रचना ने लोक जीवन में चेतना का संचार किया। आचार्य पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी केवल संस्कृत का व्याकरण नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सोच का प्रमाण है, जिसने भाषा को ज्ञान-प्रवाह का साधन बनाया।
राजनीतिक और आर्थिक चिंतन में आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र के माध्यम से राज्य संचालन के सिद्धांतों की स्थापना की, जो आज भी प्रासंगिक हैं। और भारत की आध्यात्मिक एकता को पुनर्स्थापित करने वाले आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को प्रतिष्ठित कर संपूर्ण भारत को एक दार्शनिक सूत्र में बांध दिया।
संगीत : आत्मा से ब्रह्म की यात्रा
भारतीय संगीत की उत्पत्ति सामवेद से मानी जाती है, जो वेदों में संगीत का जनक है। यद्यपि सामवेद आकार में सबसे छोटा है, परंतु उसका सांगीतिक और आध्यात्मिक महत्व अद्वितीय है। इसकी रचनाओं में अधिकांश मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं, किंतु उन्हें विशेष स्वरों और तालों में पिरोकर देवताओं की स्तुति के माध्यम से एक दिव्य अनुष्ठानिक अनुभव प्रदान किया गया है।
सामवेद का सामगान केवल उच्चारण नहीं, एक ऐसी ध्वनि-यात्रा है जो साधक को धीरे-धीरे उस दिव्य चेतना के समीप ले जाती है, जिसके लिए मंत्रों की रचना की गई थी। यह प्रयोग — देवताओं की स्तुति करते-करते साधक को देवतुल्य चेतना की ओर ले जाना — विश्व में केवल भारत की वैदिक परंपरा में ही संभव हुआ है।
भारतीय संगीत के सप्तस्वर — षड्ज (सा), ऋषभ (रे), गांधार (ग), मध्यम (म), पंचम (प), धैवत (ध), और निषाद (नि) — भी सामवेद की ही देन हैं। जब भी कोई साधक इन स्वरों का गायन करता है या उन्हें सुनता है, तो वह अनजाने में ही सामवेद की ध्वनि-शक्ति को अनुभव करता है। इसी कारण सामवेद से उपजे संगीत को "सामगान" कहा गया है, और इसके लिए विभिन्न स्वर-लिपियाँ विकसित की गईं जो शास्त्रीय संगीत की नींव बनीं।
सामवेद का संगीत केवल यज्ञ और अनुष्ठानों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसका उपयोग मानसिक शांति, रोग निवारण और आध्यात्मिक जागरण के एक सशक्त माध्यम के रूप में भी होता रहा है।
शास्त्रीय संगीत में नाट्य और अध्यात्म का समन्वय
संगीत, नृत्य और नाटक को समन्वित करने वाला भरतमुनि का नाट्यशास्त्र भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक अनुपम कृति है। इसमें ताल, भाव, रस, और अभिनय के माध्यम से जीवन के विविध आयामों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। यह ग्रंथ न केवल मंचीय प्रस्तुति की विधा का शास्त्र है, बल्कि यह सांगीतिक आध्यात्मिकता को जीवन में उतारने का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
नारद संहिता: संगीत और आत्मा का संवाद
महर्षि नारद द्वारा रचित "नारद संहिता" भारतीय संगीत की एक ऐसी अद्वितीय रचना है जो संगीत को केवल कला के रूप में नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के बीच दिव्य सेतु के रूप में प्रस्तुत करती है। यह संहिता स्पष्ट करती है कि संगीत केवल स्वरों का संयोजन नहीं, अपितु ब्रह्मांडीय ऊर्जा की अभिव्यक्ति है। यह वह माध्यम है जिसके द्वारा साधक स्वयं को ब्रह्मांड से एकाकार कर सकता है।
नारद संहिता के अनुसार प्रत्येक स्वर दिव्य है और उसमें आत्मिक प्रकाश का अंश होता है। जब कोई साधक संगीत में लीन होता है, तो वह केवल एक कलात्मक प्रदर्शन नहीं करता, बल्कि वह एक आध्यात्मिक यात्रा पर होता है — जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का प्रयास है।
खगोल शास्त्र: भारतीय वैज्ञानिक चेतना का दिव्य आयाम
वेदों के छह अंगों में खगोल शास्त्र, जिसे ‘ज्योतिष वेदांग’ कहा जाता है, अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह न केवल खगोलीय घटनाओं, ग्रहों की स्थिति और काल-निर्धारण का वैज्ञानिक अध्ययन है, बल्कि भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक चेतना का अभिन्न हिस्सा भी है। भारत में खगोलशास्त्र केवल विद्वानों और वैज्ञानिकों की चर्चाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह जनजीवन की रीढ़ बन गया।
भारत में सूर्य को केंद्र में रखकर जो खगोल-व्यवस्था विकसित हुई, वह अत्यंत वैज्ञानिक और जीवनोपयोगी रही है। प्रातः सूर्य को अर्घ्य देना, संक्रांति, पूर्णिमा, अमावस्या, एवं एकादशी जैसे पर्वों का पालन करना केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि खगोलीय घटनाओं के प्रति वैज्ञानिक जागरूकता का जीवंत प्रमाण है।
प्राचीन भारत में 27 नक्षत्रों की खोज के आधार पर काल-गणना और तिथि प्रणाली को स्थापित किया गया। ऋषि लगध द्वारा रचित वेदांग ज्योतिष इस दिशा में एक बेमिसाल ग्रंथ है, जिसने भारतीय काल-गणना को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। आचार्य आर्यभट्ट ने सूर्य और चंद्र ग्रहणों की सटीक गणना करके समाज को भ्रम और अंधविश्वास से बाहर निकाला। उन्होंने बताया कि ये घटनाएं प्राकृतिक हैं, किसी दैवी प्रकोप का परिणाम नहीं।
ब्रह्मगुप्त ने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि “सूर्य अपनी ओर वस्तुओं को आकर्षित करता है,” जो वस्तुतः गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का प्रारंभिक स्वरूप है। उन्होंने खगोलीय गणनाओं और ग्रहों की गति पर महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं, भास्कराचार्य ने ‘सूर्य सिद्धांत’ और ‘लीलावती’ जैसे ग्रंथों के माध्यम से समय, गति, छाया, और ग्रहों की चाल की गहराई से व्याख्या की।
इन महान आचार्यों के योगदान से यह स्पष्ट होता है कि खगोलशास्त्र भारत की वैज्ञानिक चेतना का केंद्रीय स्तंभ रहा है। यह शास्त्र केवल आकाशीय पिंडों का अध्ययन नहीं, बल्कि जीवन की लय, समय की धारा और धार्मिक अनुष्ठानों की संरचना का आधार भी है। भारत का हर नागरिक अनजाने ही खगोल विज्ञान को अपने दैनिक जीवन में जीता है — पंचांग देखकर कार्य आरंभ करता है, ग्रह-नक्षत्र देखकर शुभ मुहूर्त निर्धारित करता है, और पूर्णिमा या संक्रांति पर विशेष साधना करता है।
भारत और गणित: शून्य से अनंत तक की यात्रा
गणित की जो आधारशिला आज आधुनिक विज्ञान और तकनीक की नींव मानी जाती है, उसकी जड़ें भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा में गहराई से समाई हुई हैं। विश्व को शून्य (Zero) और दशमलव (Decimal) की अनुपम देन देने वाला देश यदि कोई है, तो वह है भारत। भारतीय मनीषियों ने न केवल गणितीय अवधारणाओं को विकसित किया, बल्कि उन्हें जीवन के व्यवहारिक आयामों में भी समाहित किया।
गणित भारत में केवल संख्याओं का खेल नहीं था, बल्कि यह दर्शन, विज्ञान, यज्ञ, निर्माण, संगीत, खगोल और आध्यात्मिक साधना का भी मूल तत्व था। अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति और ज्यामिति जैसे गणितीय विषय भारतीय जीवन के दैनिक व्यवहार में समाहित थे।
शून्य और दशमलव की क्रांति
आचार्य आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया, जिसका उपयोग वर्गमूल, घनमूल और अन्य जटिल गणनाओं में किया जाता था। वहीं, आचार्य ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ के माध्यम से शून्य के नियमों और गुणों को स्पष्ट किया, जो आज की गणितीय दुनिया की आधारभूत संरचना है। उन्होंने शून्य को एक पूर्णांक के रूप में स्थापित कर यह सिद्ध किया कि यह मात्र “कुछ नहीं” नहीं, बल्कि “सर्वोत्तम संकेत” है।
त्रिकोणमिति और ज्यामिति का उद्भव
सूर्य सिद्धांत, जो भारत की खगोल-परंपरा का एक प्राचीन ग्रंथ है, ने त्रिकोणमिति के आधुनिक सिद्धांतों की नींव रखी। भास्कराचार्य ने अपने ग्रंथों में त्रिकोणमिति, घातांक, और कलन के सिद्धांतों को अत्यंत सरलता से प्रस्तुत किया। उन्होंने 'लीलावती' के माध्यम से गणित को व्यवहारिक और कलात्मक रूप में समाज के सामने रखा।
भारत में गणित का प्रयोग केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं रहा — यज्ञ वेदियों की रचना, अग्नि की दिशा, पूजा स्थलों की संरचना, यज्ञशालाओं का निर्माण — सबमें ज्यामितीय नियमों का गहन अनुप्रयोग हुआ।
गणितीय संस्कार की सांस्कृतिक गहराई
वेदों में गणितीय अभिव्यक्तियाँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं — जैसे दश (10), शत (100), सहस्र (1000), अयुत (10,000) आदि शब्दों का प्रयोग यह दर्शाता है कि भारतीय गणितीय परंपरा न केवल वैज्ञानिक थी, बल्कि पूर्णतः व्यवस्थित भी थी।
भारत का विज्ञान: परंपरा में रचा-बसा विज्ञान
भारत की वैज्ञानिक परंपरा केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं रही, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र — स्वास्थ्य, धातु, वास्तु, रसायन और आहार — में गहराई से समाहित रही है। यहाँ विज्ञान केवल ज्ञान का विषय नहीं, बल्कि जीवन पद्धति रहा है। भारत के ऋषि-मनीषियों ने अपने अनुसंधानों से विज्ञान को लोकजीवन, प्रकृति और आध्यात्मिक चेतना से जोड़ा।
आयुर्वेद और चिकित्सा विज्ञान – चरक व सुश्रुत की देन
भारत में स्वास्थ्य विज्ञान का मूल स्रोत आयुर्वेद रहा है, जो जीवन को प्रकृति के साथ एकाकार कर रोग निवारण की प्रणाली देता है।
आचार्य चरक ने चरक संहिता के माध्यम से औषधियों, आहार-विहार, और जीवनशैली पर आधारित चिकित्सा को जनसामान्य तक पहुँचाया।
आचार्य सुश्रुत ने सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के विस्तृत सिद्धांत और पद्धतियाँ दीं, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
धातु विज्ञान – आचार्य नागार्जुन का अद्वितीय योगदान
भारतीय धातुविज्ञान भी विश्व में अद्वितीय रहा है।
आचार्य नागार्जुन ने रस रत्नाकर में धातु परिष्करण, धातु मिश्रण, और औषधीय धातुओं की जानकारी दी।
इसी परंपरा में चाँदी के बर्तनों में भोजन, लोहे की कड़ाही में खाना पकाना, और पूजा में पीतल व कांस्य का उपयोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जाता रहा है।
वास्तु शास्त्र – ऊर्जा और दिशाओं का विज्ञान
भारतीय वास्तुशास्त्र, केवल स्थापत्य नहीं बल्कि ऊर्जा संतुलन का विज्ञान है।
घर का मुख्य द्वार पूर्व या उत्तर में बनाना, रसोई को दक्षिण-पूर्व में स्थापित करना, तथा सोते समय सिर दक्षिण या पूर्व दिशा में रखना — ये सभी पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के अनुसार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तय किए गए हैं।
रसायन विज्ञान – कणाद और नागार्जुन की दृष्टि
भारत का रसशास्त्र (रसायन विज्ञान) जीवन के अंग के रूप में प्रयोग हुआ है।
महर्षि कणाद ने वैशेषिक दर्शन में पदार्थ, गुण, परमाणु सिद्धांत (एटॉमिक थ्योरी) की नींव रखी।
आचार्य नागार्जुन ने औषधीय रसायनों, धूप, धूम्र, धातु-शोधन, एवं रसायन-तंत्र पर गहन शोध किए।
इन सिद्धांतों का उपयोग आज भी होता है — जैसे गाय के घी से हवन, गुग्गुल व कपूर से वायु शुद्धि, तथा शहद व नारियल जल का औषधीय उपयोग।
खगोल शास्त्र – लगध, आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त
भारत का खगोल विज्ञान केवल शास्त्रों में नहीं, जनजीवन में भी जीवित रहा है।
लगध द्वारा रचित वेदांग ज्योतिष में समय, तिथि और नक्षत्रों की गणना की पद्धति दी गई।
आर्यभट्ट ने पृथ्वी की गोलाई, ग्रहण का कारण, और सौरमंडल की गति का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया।
ब्रह्मगुप्त ने बताया कि "सूर्य सभी वस्तुओं को आकर्षित करता है", जो गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत की आधारभूमि थी।
भारत की कालगणना प्रणाली, नक्षत्रों की पहचान, संक्रांति, पूर्णिमा, और सूर्य अर्घ्य की परंपरा — सब खगोल ज्ञान की झलकियाँ हैं।
पराविज्ञान: आत्मा और मन की सूक्ष्म सत्ता का विज्ञान
शरीर को स्थूल नेत्रों से देखा और उसकी बीमारियों का उपचार किया जा सकता है, परंतु मन और आत्मा की समस्याएं इतनी स्पष्ट नहीं होतीं — इन्हें समझना, देखना और साधना अत्यंत जटिल कार्य है। भारत के ऋषियों ने इस सूक्ष्म और रहस्यमय क्षेत्र को जानने के लिए जो विज्ञान विकसित किया, वही है — पराविज्ञान।
पराविज्ञान में योग, ध्यान, तंत्र, चक्र, और कुण्डलिनी जैसे गहन विषयों का समावेश है। इसका उद्देश्य है — मनुष्य के भीतर स्थित ऊर्जा-केन्द्रों (चक्रों) को जागृत कर आत्मा और ब्रह्म के मध्य सेतु स्थापित करना।
महर्षि पतंजलि का योगसूत्र पराविज्ञान का मूल ग्रंथ है, जो मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक अनुशासन का वैज्ञानिक मार्गदर्शन करता है।
आचार्य कपिल के सांख्य दर्शन ने "प्रकृति और पुरुष" की व्याख्या करके आत्मा और भौतिक जगत के भेद को स्पष्ट किया — जो पराविज्ञान का आधार है।
गौतम ऋषि के न्यायसूत्र केवल तर्कशास्त्र ही नहीं, बल्कि इंद्रियातीत सत्य की खोज का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
महर्षि वशिष्ठ का योग वशिष्ठ पराविज्ञान, योग और ध्यान के अद्भुत समन्वय से भरा हुआ ग्रंथ है — जिसमें आत्मा की यात्रा, चेतना की विविध अवस्थाएँ, और मुक्ति के उपायों का विस्तार है।
तंत्र विज्ञान भी पराविज्ञान का ही अंग है, जिसमें विशिष्ट साधनाओं के माध्यम से मानसिक शक्ति, ऊर्जा प्रवाह, और चेतन अवस्था के विस्तार का अभ्यास किया जाता है। इसमें कुण्डलिनी शक्ति और सात चक्रों का वैज्ञानिक रूप से वर्णन किया गया है, जो आज भी विश्वभर में योग साधकों द्वारा अनुभव किए जा रहे हैं।
भारत की यह परावैज्ञानिक परंपरा यह सिद्ध करती है कि विज्ञान केवल दृष्टिगोचर वस्तुओं तक सीमित नहीं, बल्कि अदृश्य और सूक्ष्म सत्ता के क्षेत्र में भी उसका गहन प्रवेश है। यह वही भारत है जहाँ 'अहम् ब्रह्मास्मि' का घोष — आत्मा और ब्रह्म की एकता का वैज्ञानिक उद्घोष — युगों से होता आ रहा है।
भारत का वास्तु शास्त्र: प्रकृति से समरसता का विज्ञान
भारतीय वास्तु शास्त्र केवल एक शास्त्रीय अध्ययन नहीं, बल्कि दैनिक जीवन में ऊर्जा और संतुलन को बनाए रखने वाला व्यवहारिक विज्ञान है। यह शास्त्र ब्रह्मांडीय ऊर्जा और मानव जीवन के बीच के समन्वय को स्थापित करता है, जिससे व्यक्ति स्वयं को प्रकृति के पंचमहाभूतों — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — के साथ समरस कर पाता है।
भारत में मंदिर निर्माण वास्तु सिद्धांतों का अनुपम उदाहरण रहे हैं। जैसे तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर, जो जटिल ज्यामितीय और खगोलीय सिद्धांतों के आधार पर निर्मित है, यह सिद्ध करता है कि वास्तु शास्त्र केवल भवन-निर्माण नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा के संकेन्द्रण की कला है।
मयमतम् और विश्वकर्मा प्रकाश जैसे प्राचीन ग्रंथों में स्तंभों की माप, गर्भगृह की दिशा, शिखर की ऊँचाई और प्रवेशद्वार की स्थिति जैसे वास्तु विषयों की विस्तृत व्याख्या की गई है। ये ग्रंथ मंदिरों को ऊर्जा केंद्र के रूप में स्थापित करने की विधियाँ सिखाते हैं।
भारतीय मनीषियों ने दिशाओं की ऊर्जा को वैज्ञानिक रूप से समझा:
उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) को जल स्रोतों और आध्यात्मिकता के लिए शुभ माना गया।
दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) को स्थायित्व और भार वहन के लिए उपयुक्त माना गया।
दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) अग्नि तत्व के अनुकूल है, अतः यहाँ रसोई घर की स्थापना की जाती है।
पूर्व और उत्तर दिशा को सकारात्मक ऊर्जा के प्रवेशद्वार के रूप में स्वीकार किया गया।
वास्तु शास्त्र के अनुसार, सूर्य की गति, वायु के प्रवाह, और प्राकृतिक प्रकाश के विज्ञान को ध्यान में रखते हुए घरों, मंदिरों, और नगरों का निर्माण होता रहा है। इसका एक जीवंत उदाहरण है — घर के आँगन में उत्तर-पूर्व दिशा में तुलसी का पौधा लगाना, जो वायु की शुद्धि करता है और सकारात्मक ऊर्जा को आमंत्रित करता है।
भारतीय वास्तु प्रणाली, केवल भवनों का निर्माण नहीं करती, यह जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन, स्वास्थ्य और सौंदर्य को स्थायित्व प्रदान करने वाला एक समग्र जीवन दर्शन है।
समय-समय पर आयोजित होने वाले कुंभ एवं महाकुंभ जैसे महासंगम, केवल धार्मिक आयोजन नहीं थे, बल्कि ये ऐसे आयोजन थे जहाँ विभिन्न राज्यों, राजवंशों, और साम्राज्यों से आए लोग इकट्ठा होकर नवीनतम वैज्ञानिक एवं सामाजिक अन्वेषणों की जानकारी प्राप्त करते थे, जिससे राष्ट्र की विचारधारा एकसूत्र में बंधी रह सके।
इस समूची व्यवस्था में राज्य का कार्य केवल प्रशासनिक रहा — राष्ट्र के कार्यों का केंद्र भारत के मंदिर बनें, जिन्होंने स्थानीय स्तर पर वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित समाज का सञ्चालन किया, मंदिर राज्यों में स्थित थे लेकिन वह कभी भी राज्य पर निर्भर नहीं रहे । राष्ट्र की अवधारणा भारत में सदैव वैचारिक, सांस्कृतिक और आत्मिक रही है, न कि केवल राजनीतिक।
इस प्रकार भारत की राष्ट्र अवधारणा महज राजनीतिक या भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि एक जीवंत, बौद्धिक और आध्यात्मिक चेतना है — जो “यत्र तत्र सर्वत्र भारत” की भावना को चरितार्थ करती है।
विश्व के प्रत्येक उस स्थान पर — चाहे वह किसी व्यक्ति का आचरण हो, कोई सामाजिक संस्था हो अथवा किसी मंदिर की आध्यात्मिक संरचना — जहाँ भारतीय विज्ञान, गणित, वास्तुशास्त्र, अध्यात्म, शिक्षा, संगीत, खगोलशास्त्र, पराविज्ञान तथा सांस्कृतिक बौद्धिकता की आभा दृष्टिगोचर होती है, वहाँ यह अनुभूति स्वाभाविक रूप से होती है कि भारत की चेतना वहाँ सजीव रूप में विद्यमान है। यही भाव है जिसकी अभिव्यक्ति 'यत्र तत्र सर्वत्र भारत' के रूप में होती है — एक ऐसा भारत, जिसे न तो काल सीमित कर सकता है और न ही कोई भौगोलिक रेखा बाँध सकती है।
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